देश में अगर किसी सार्वजनिक परिवहन को नैशनल कैरियर का पद दिया जा सकता है, तो वह भारतीय रेल (Indian Railway) है. पहली बार अप्रैल 1853 में ठाणे से बोरी बंदर तक का सफर तय करने से शुरू हुई यह सुविधा दुनिया के सबसे लंबे और व्यस्त नेटवर्क में से एक बन चुकी है. देश की अर्थव्यवस्था की जान कहे जाने वाली भारतीय रेल अगर किसी मोर्चे पर कमजोर पड़ती है, तो समय पाबंद होने में.
सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने ट्रेन चार घंटे देरी से पहुंचने के कारण यात्री की फ्लाइट छूटने के हालिया मामले में 30 हजार रुपये का मुआवजा दिए जाने का फैसला सुनाते हुए रेलवे को फटकार लगाई है.
अदालत का कहना है कि समय बहुत कीमती होता है और यात्रियों के प्रति जिम्मेदारियों को हल्के में नहीं लिया जा सकता. जनता ऐसे ही अधिकारियों और प्रशासन की गलतियों का खामियाजा नहीं भुगतती रह सकती है. ट्रेन के लेट होने पर किसी को तो जिम्मेदारी उठानी होगी.
पब्लिक ट्रांसपोर्ट अपनी सुविधाओं के बल पर खड़े होते हैं. इसका एक अहम पहलू होता है समयनिष्ठ होना. भारतीय रेल के सामने कई उदाहरण मौजूद हैं, जिनसे वह सबक ले सकती है.
जापान की 1964 में बनी हाई-स्पीड ट्रेन समय की इतनी पाबंद है कि उसकी सुविधा में होने वाली औसत देरी सेकंडों में गिनी जाती है.
एक्सपर्ट्स का कहना है कि जापानी रेल ने यह उपलब्धी हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर और ह्यूमनवेयर के दम पर हासिल की है. हालांकि, प्रशासन को बहुत दूर जाने की भी जरूरत नहीं है. देश के तमाम शहरों की मेट्रो सेवा से ही सबक लिया जा सकता है, जहां ट्रेन हमेशा समय पर होती है.
अदालत का कहना है कि प्रतिस्पर्धा के जमाने में टिके रहने के लिए ऐसी क्वॉलिटी बनाना जरूरी है. रेलवे से बेहतर कोई नहीं जानता कि कॉम्पिटीशन कितना तगड़ा है.
विस्तार करती एयरलाइंस यात्रियों को अपनी ओर आकर्षित करने की तैयारी में हैं. मामल ढुलाई में सड़क परिवहन पहले ही मार्केट शेयर पर कब्जा बढ़ाता जा रहा है.
भागदौड़ की दुनिया में समय पाबंद होना पहले से कहीं ज्यादा जरूरी हो चुका है. अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए रेलवे को तेजी से बदलाव करने होंगे.
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