ये कुछ हफ्ते पहले की ही बात है. इंजीनियरिंग का सामान बनाने वाली एक कंपनी पैटन इंटरनेशनल पूर्वी तट पर कंटेनरों की कमी (Container Shortage) के कारण अपने आधे से अधिक कंटेनरों को कोलकाता से मुंबई ले जा रही थी. कंपनी ये कंटेनर अमेरिका निर्यात करने वाली थी. टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार इस पूरे काम का संचालन कर रहे संदीप गोयल का कहना है कि ये किसी बुरे सपने से कम नहीं है. शहर में एक बंदरगाह होने के बावजूद दूसरे शहर के बंदरगाह पर जाना पड़ रहा है. हालांकि कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट के प्रयासों से पिछले कुछ हफ्तों में हालात में सुधार हुआ है.
कोविड काल के बाद विश्व स्तर पर निर्यात कंटेनरों की से जूझ रहे हैं. जबकि महामारी से उबरने के बाद माल ढुलाई में भारी वृद्धि हुई है. खासतौर से देश के पूर्वी बंदरगाहों पर हालात बहुत खराब हैं. यही वजह है कि शिपिंग के लिए माल को सड़क मार्ग से मुंबई, विशाखापत्तनम या कोचीन ले जाना पड़ रहा है ताकि सही दिशा से माल को निर्यात किया जा सके.
इंडियन पोर्ट्स एसोसिएशन के ताजा आंकड़ों से पता चलता है कि अप्रैल-अक्टूबर के दौरान, कोलकाता में कंटेनर यातायात 2019 के स्तर से 18 प्रतिशत से कम रहा. जबकि सभी बंदरगाहों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर औसत में 8 प्रतिशत से ज्यादा की वृद्धि थी. हल्दिया डॉक्स महामारी में भी कंटेनर की संख्या में आगे निकलने में कामयाब रहा.
कोलकाता से सामान शिप्स के जरिए पहले या तो कोलंबो जाता है या फिर सिंगापुर. कोलकाता में हुआ ड्राफ्ट इसमें अहम भूमिका निभाता है. इसलिए जब कंटेनर क्राइसिस शुरू हुआ शिपिंग लाइन्स खाली कंटेनर लेकर दूसरे पोर्ट्स पर जाने लगीं. ये प्रक्रिया तब तक जारी रही जब तक बंदरगाह अधिकारियों ने उन्हें इस मामले में रोका नहीं.
केंद्र इस दिक्कत से निपटने की पूरी कोशिश कर रहा है. हालांकि व्यवसायी भी ये मान रहे हैं कि कुछ और महीनों तक इस समस्या के हल होने की कोई संभावना नहीं है. देश के पूरी हिस्सों पर स्थित बंदरगाहों से निर्यात करने वाले ये उम्मीद कर रहे हैं कि कंटेनर की इस कदर कमी का कुछ समाधान हो जाएगा क्योंकि उन्हें अभी पहले से दस प्रतिशत ज्यादा खर्च करना पड़ रहा है.
एक चाय निर्यातक ने कहा कि वर्तमान में प्रति कंटेनर परिवहन लागत तकरीबन एक लाख रुपये तक बढ़ जाती है. और, फिर वेयरहाउसिंग, लोडिंग और अनलोडिंग के लिए होने वाला भुगतान भी तीस से चालीस हजार रुपये तक पहुंचता है. फेरो मिश्र धातु निर्यात करने वाले महेश कील ने कहा कि पश्चिम और उत्तर भारत में ये समस्या कम है. महेश कील अब तक विशाखापत्तनम के माध्यम से शिपिंग माल के लिए लगभग 2 हजार रुपये प्रति टन का भुगतान कर रहे थे. कील ने कहा कि अब कोलकाता से चटगांव तक एक कंटेनर को भेजने के लिए 14 सौ से 15 सौ डॉलर का खर्च आ रहा है. जो महामारी से पहले की दरों से तीन गुना ज्यादा है.
एक अन्य चाय निर्यातक के मुताबिक CIS देशों में एक कंटेनर की शिपिंग में लगभग 11 हजार डॉलर का खर्च आ सकता है. जबकि जून तक ये दर 5500 से 6 हजार डॉलर तक थी.
इसमें और भी ज्यादा बुरी बात ये है कि कुछ शिपिंग लाइनें अभी इन देशों तक कंटेनर की खेप ही नहीं ले जा रहीं. जिसका नतीजा ये है कि श्रीलंका या केन्या जैसे देशों से भारतीय निर्यातक पिछड़ रहे हैं. एक निर्यातक ने अपना दर्द साझा किया कि माल भरा हुआ पड़ा है. ब्याज लागत ज्यादा उठानी पड़ रही है. डिलीवरी और पेमेंट साइकिल लंबी हो रही है. नतीजा ये कि हमें ज्यादा से ज्यादा पूंजी की जरूरत पड़ रही है.
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