फिल्म “मशाल” का एक बहुत प्रचलित और चर्चित दृश्य है जिसमें दिलीप कुमार की पत्नी (फिल्म की भूमिका में ) बेतहाशा दर्द से परेशान हैं और दिलीप कुमार सड़क पर बदहवास चीख-चीखकर आती-जाती गाड़ी वालों से पत्नी को अस्पताल पहुंचाने की गुहार कर रहे हैं. हे भाय!…हे भाई साहब! गाड़ी रोको!….मेरी बीबी मर रही है!..अस्पताल पहुंचा दो!..दिलीप कुमार के मेथर्ड ऐक्टिंग का ये एक महत्वपूर्ण उदाहरण है. दिलीप की एक्टिंग के कारण ये दृश्य अमर हो गया. इस दृश्य को देख कर लगता है कि सचमुच में दिलीप कुमार की पत्नी मर रही है और उसे बचाने के लिए वो बदहवास होकर मदद मांग रहे हैं.
दिलीप को देखकर ये नहीं लगता कि वो महज अभिनय कर रहे हैं. दर्शकों को लगता है कि वो एक सच्ची घटना को देख रहे हैं. दिलीप कुमार की चर्चा जब मेथर्ड ऐक्टर के तौर पर होती है तो ये सवाल जरूर उठता है कि मेथर्ड ऐक्टिंग क्या है और बाकी कलाकारों से वो अलग कैसे हैं?
दिलीप कुमार ने साठ के दशक में अपने अभिनय कला के राज को बीबीसी के साथ इंटरव्यू में खोला था. उन्होंने बताया कि मान लीजिए कोई निर्देशक मुझे बताता है कि दृश्य में आपकी मां मर रही है. अब मैं तो जानता हूं कि जो सामने है वो मेरी मां नहीं है. वो तो सिर्फ एक एक्टर है. वो भी मर नहीं रही है. सिर्फ मरने की ऐक्टिंग कर रही है. जब ये दृश्य मेरे सामने रखा जाता है तो मैं सोचना शुरू करता हूं कि अगर वो सचमुच मेरी मां होती और मर रही होती तो मेरी क्या प्रतिक्रिया होती? मैं कैसा महसूस करता? जब दिमाग ये सोचने लगता है तो अंदर से एक प्रतिक्रिया होती है. दिलीप कुमार अपनी इसी प्रतिक्रिया के जरिए दृश्य को जीवंत बना देते हैं. खुद दर्शक भी उसी प्रतिक्रिया से गुजरने लगते हैं.
मेथर्ड एक्टिंग का मतलब है एक खास नियम या पद्धति से एक्टिंग करना. अपने अनुभवों से जोड़कर चरित्र के साथ भावनात्मक लगाव पैदा करना. मेथर्ड एक्टिंग को विकसित करने का श्रेय रूसी नाटककार स्तानिसलावस्की को दिया जाता है.
1930 के आस पास ये अमेरिका में काफी लोकप्रिय हुआ. इस पद्धति में सिचुएशन को समझना, समय काल को समझना और फिर अलग अलग सिचुएशन में अलग तरीके से अभिनय करना पड़ता है. अपनी इसी अभिनय क्षमता के चलते दिलीप कुमार अपने दो समकालीन महनायकों, राज कपूर और देवानंद से बिलकुल अलग दिखाई देते हैं.
उस दौर के हालीवुड कलाकारों में मार्लोन ब्रैंडो और डसटीन हाफमैन को मेथर्ड एक्टिंग का गुरु माना जाता है. ब्रैंडो को 1972 में बनी फ़िल्म “गॉड फादर” से पहचान मिली, जबकि दिलीप कुमार पचास के दशक में ही इस कला में माहिर हो गए थे. जोगन 1950, दीदार 1951, देवदास 1955 और राम और श्याम 1967 में दिलीप कुमार की मेथर्ड एक्टिंग की जबरदस्त छाप दिखाई देती है।
खास बात ये है कि दिलीप कुमार ने कभी भी एक्टिंग का प्रशिक्षण नहीं लिया था. दिलीप कुमार का एक्टिंग में आना भी एक इत्तफाक ही था.
चालीस के दशक में वो बॉम्बे टॉकीज में काम करते थे. वहां अशोक कुमार की एक फिल्म की शूटिंग चल रही थी. दिलीप कुमार बड़े गौर से अशोक कुमार को अभिनय करते देखते थे.
बाद में चलकर अशोक कुमार ने दिलीप को अभिनय के कुछ गुर भी सिखाए. 1944 में बॉम्बे टॉकीज की मालिक देविका रानी ने दिलीप कुमार को “ज्वार भाटा” फिल्म में पहली बार मौका दिया.
दिलीप ने मेथर्ड एक्टिंग का अपना अनोखा स्टाइल खुद विकसित किया. मेथर्ड एक्टिंग के जरिए उन्होंने दुखद किरदारों का इतना अच्छा अभिनय किया कि प्रोड्यूसर उनके लिए ऐसे किरदारों पर फिल्म बनाना शुरू किया जो नायक को दुखद अंत तक पहुंचा देता था.
ऐसे किरदारों को सफलता पूर्वक निबाहने के कारण उन्हें ट्रेजडी किंग कहा जाने लगा. इसका असर उनके दिल और दिमाग पर भी पड़ा और वो मानसिक बीमारी के शिकार हो गए.
उन्हें लंदन में मनोचिकित्सक से इलाज कराना पड़ा. मनोचिकित्सक के सुझाव पर ही बाद में उन्होंने कॉमेडी फिल्मों में काम करना शुरू किया. गोपी जैसी शानदार फिल्में गवाह हैं कि उनमें कॉमेडी की भी अपार क्षमता थी.
मुसलमान होने के कारण वो कई बार विवादों में भी रहे. पाकिस्तान ने उन्हें ” निशान ए पाकिस्तान” अवॉर्ड दिया तो शिवसेना ने बवाल खड़ा कर दिया.
उनसे अवॉर्ड वापस करने की मांग की गई. उन पर पाकिस्तान का एजेंट और जासूस होने का आरोप भी लगा. लेकिन, दिलीप कुमार ने इन विवादों का डटकर मुकाबला किया.
सेंसर बोर्ड ने उनकी मशहूर फिल्म ” गंगा जमुना ” के आखिरी दृश्य से “हे राम” शब्द को निकालने को कहा. तर्क ये दिया गया कि दिलीप कुमार मुसलमान हैं इसलिए वो हे राम कैसे कह सकते हैं. और फिर ये गांधी जी के आखिरी शब्द हैं.
दिलीप ने इसके खिलाफ़ संघर्ष किया. दिलीप कुमार की मृत्यु के बाद भी उन पर हिंदू नाम रख कर पैसा कमाने जैसे मूर्खतापूर्ण आरोप लगाए गए. लेकिन, वास्तव में दिलीप कुमार जीवनभर धर्मनिरपेक्ष बने रहे.
उनकी पत्नी सायरा बॉनो ने एक इंटरव्यू में बताया था कि दिलीप कुमार को पढ़ने का बहुत शौक था. वो शेक्सपीयर और चेखव से लेकर प्रेमचंद और गालिब तक को पढ़ते रहते थे. उनका संस्कार इन्हीं महान लेखकों की रचनाओं से बना था.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और “कोरोना जानो समझो बचो” किताब के लेखक हैं.)
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