परपेचुअल बॉन्ड्स इस वक्त सुर्खियों में बने हुए हैं. इसकी वजह यह है कि प्रत्यक्ष या म्यूचुअल फंड्स के जरिए पोर्टफोलियो में इनके एक्सपोजर ने निवेशकों के मन में कई सवाल पैदा कर दिए हैं. यस बैंक के केस को देखते हुए रेगुलेटर्स ने इन बॉन्ड्स और इनकी वैल्यूएशन पर गहराई से नजर डाली है. इसका नतीजा ये हुआ है कि म्यूचुअल फंड्स के इन बॉन्ड्स में निवेश को सीमित कर दिया गया है और साथ ही इनकी वैल्यूएशन को लेकर भी बदलाव किए गए हैं. यहां पर परपेचुअल बॉन्ड्स और इन बदलावों से इन पर पड़ने वाले असर पर नजर डाली गई है.
परपेचुअल बॉन्ड्स परपेचुअल बॉन्ड ऐसे बॉन्ड होते हैं जिनकी कोई मैच्योरिटी तारीख नहीं होती है. इसी वजह से इन्हें परपेचुअल बॉन्ड कहा जाता है क्योंकि सैद्धांतिक रूप से हमेशा जारी रह सकते हैं. इश्यूअर को पैसे मिलते हैं और इसके बदले उसे इन बॉन्ड्स पर ब्याज चुकाना पड़ता है. इनकी सेकेंडरी मार्केट में ट्रेडिंग भी होती है. एडिशनल टियर 1 बॉन्ड्स को AT1 बॉन्ड भी कहा जाता है. इन्हें बैंक जारी करते हैं. ये परपेचुअल बॉन्ड्स का एक उदाहरण हैं.
इन बॉन्ड्स में कॉल ऑप्शन हालांकि, इन बॉन्ड्स को परपेचुअल बॉन्ड कहा जाता है, लेकिन इन बॉन्ड्स में एक सुविधा दी गई जिसे कॉल ऑप्शन कहा जाता है. इसका मतलब ये है कि बॉन्ड्स का इश्यूअर बॉन्ड्स से संबंधित शर्तों के हिसाब से इनके रीपेमेंट के लिए कॉल कर सकता है. इससे रिडेम्पशन के रूप में ग्राहकों को इनसे निकलने का मौका मिलता है.
राइट-ऑफ यस बैंक के ये बॉन्ड्स, जो कि AT1 बॉन्ड्स थे, की वजह से इनवेस्टर्स के लिए संकट पैदा हो गया था. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बैंक की रीस्ट्रक्चरिंग के वक्त यह तय हुआ था कि इन बॉन्ड्स की वैल्यू को राइट ऑफ किया जाएगा. इसका मतलब यह था कि इनकी वैल्यू जीरो हो गई जिससे ये इक्विटी निवेश से भी ज्यादा जोखिम भरे हो गए थे. उस वक्त निवेशकों के सामने पैदा हुए हालात को देखकर सेबी ने इन बॉन्ड्स की वैल्यूएशन को लेकर गाइडलाइंस तय की थीं. और म्यूचुअल फंड्स के लिए इनमें एक्सपोजर की सीमा तय कर दी थी.
असर नई गाइडलाइंस इस वजह से विवाद के केंद्र में हैं क्योंकि शुरुआती गाइडलाइंस के मुताबिक, बॉन्ड्स की इस आधार पर वैल्यूएशन होनी चाहिए जैसे कि उनका जीवन 100 साल का हो. अब इसे चरणबद्ध तरीके से कर दिया गया है, ऐसे में 31 मार्च 2022 तक इन्हें 10 साल के जीवन के हिसाब से वैल्यूएशन मिलेगी. 31 मार्च 2023 के बाद से इनकी वैल्यूएशन 100 साल की मैच्योरिटी के हिसाब से की जाएगी. बॉन्ड की मैच्योरिटी जितनी ज्यादा होगी, उतना ही इसका प्राइस ऊपर-नीचे होगा. और ऐसे में इसका म्यूचुअल फंड के जोखिम पर असर होगा. म्यूचुअल फंड्स के पास इन बॉन्ड्स का बड़ा हिस्सा है, लेकिन यह पाबंदी लगने से कि कोई भी स्कीम इन बॉन्ड्स में 10 फीसदी से ज्यादा नहीं हिस्सा रख सकती है, यह स्पष्ट हो गया है कि इन बॉन्ड्स से संबंधित जोखिम को कम करने की कोशिश की जा रही है. निवेशकों के लिए यह एक अच्छी बात है और उनके लिए यह समझना जरूरी है.
(लेखक मनीएडूस्कूल के फाउंडर हैं, उनके व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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