निवेश के मामले में हर एसेट क्लास अलग-अलग आर्थिक परिस्थितियों के हिसाब से अपनी भूमिका निभाते हैं. ऐसे में अगर पोर्टफोलियो में सभी का सही मिश्रण रखा जाए तो जोखिम का डर कम होगा. साथ ही आपको अपने लॉन्ग टर्म के लक्ष्य को पूरा करने और बेहतर रिटर्न हासिल करने में मदद मिलेगी. मगर कई बार मार्केट के उतार-चढ़ाव के चलते पोर्टफोलियो गड़बड़ा जाता है. इसे ठीक करने के लिए रीबैलेंसिंग या यानी इसे दोबारा संतुलित करने की जरूरत पड़ती है. तो क्या है रीबैलेंसिंग प्रक्रिया और इससे क्या फायदे होते हैं आइए जानते हैं.
क्या होती है रीबैलेंसिंग? म्यूचुअल फंड में समय-समय पर हम कुछ एसेट बेचते हैं, तो वहीं कई दूसरे एसेट में निवेश करते हैं. इससे पोर्टफोलियो में बदलाव होता है. एसेट एलोकेशन को दोबारा उसी लेवल पर लाना जो आप चाहते हैं इसे रीबैलेंसिंग कहते हैं. इसका इस्तेमाल जोखिम को कम करने के लिए किया जाता है. इसी आधार पर तय किया जाता है कि कब पैसा किसी स्कीम से निकला जाए या उसमें निवेश किया जाए. इसका इस्तेमाल एक तय समय के लिए किया जाता है या इसे तब यूज कर सकते हैं जब किसी एसेट क्लास में एलोकेशन पहले से निर्धारित स्तर को पार कर जाता है या घट जाता है.
कब पड़ती है इसकी जरूरत? पोर्टफोलियो में फेरबदल की जरूरत रिस्क को देखते हुए लिया जाता है. फंड मैनेजर देखता है कि लंबी अवधि के लिए जो आपका लक्ष्य है क्या मौजूद पोर्टफोलियो बाजार के रिस्क को झेलते हुए इसे पूरा कर सकता है या नहीं. अगर इसमें कुछ कमी नजर आती है तब पोर्टफोलियो के एसेट में बदलाव किया जाता है. जरूरी नहीं कि जिन एसेट में आपने पैसा लगाया है वो हमेशा बेहतर प्रदर्शन करें, लेकिन छोटी अवधि के लिए इसमें आए उतार-चढ़ाव को देखते हुए पोर्टफोलियो को रीबैलेंस नहीं करते हैं. फेरबदल के लिए हमेशा लंबी अवधि का नजरिया रखा जाता है. इसके अलावा इसमें कर, खर्चों और निकास भार के प्रभाव पर भी विचार किया जाता है.
किन एसेट में करते हैं फेरबदल? पोर्टफोलियो को दोबारा व्यवस्थित करने के लिए कई एसेट क्लास जैसे कि इक्विटी, डेट, सोना, रियल एस्टेट और यहां तक कि निजी इक्विटी फंड, उद्यम पूंजी फंड और हेज फंड आदि जैसे विकल्पों को शामिल किया जाता है. पोर्टफोलियो में इनका सही मिश्रण निवेशकों को कम जोखिम के साथ बेहतर रिटर्न दिलाने में मदद करता है.
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