यदि आप कोई स्टार्ट-अप बना रहे हों तो आपको अपने कारोबार की सफलता के लिए कौन से आंकडे पढ़ने चाहिए? स्टार्ट अप बड़ी बात हो गई अगर आप दुकान खोलना चाहते हैं तो क्या आपको इस बात की जानकारी नहीं होनी चाहिए कि लोगों की जेब के भीतर क्या चल रहा है? क्योंकि उसी जेब से निकले पैसे आपकी दुकान या आपके बिजनेस तक आएंगे. आपको या आपके चहेतों को कहां नौकरी मिलेगी इसकी योजना बनाने के लिए आपको कौन से आंकड़े जाननेने चाहिए? ताकि आप अगले कुछ सालों में कितना कमा सकेंगे और आपकी जेब का क्या हाल रहेगा इसका अंदाजा आप पहले ही लगा सकें.
इन सबकी संभावनाओं के आकलन के लिए कौन से आंकड़े काम आएंगे? क्या सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का आंकड़ा? इसका जवाब ना में है. तो क्या जनसंख्या का आंकड़ा? नहीं इससे भी मदद नहीं मिलने वाली. कंपनियों की बैलेंस शीट कुछ मामलों में काम आ सकती है लेकिन इसके लिए बड़ी मगजमारी करनी होगी.
यह आंकडे हैं अभी आए हैं. हमें पता है कि इस समय इस आप केवल एक ही आंकड़ा देख-सुन रहे हैं, वह है चुनाव का कि किसकी सीटें कितनी आएंगी. मगर वह सब मोह माया है. आइये असली आंकड़ों का मुकाबला करिये. भारत में परिवारों के उपभोग खर्च सर्वे के आंकड़े जारी हो चुके हैं. संख्याएं बेहद चौंकाने वाली हैं. इनकी राजनीतिक और आर्थिक व्याख्या से कई रहस्य खुलते हैं.
हमें हैरत होनी चाहिए कि 5 ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी और विकसित भारत के तमाम ख्वाब, जुमले हमें पकड़ा दिए गए. मगर यह पैमाइश नहीं थी कि बीते 10 साल में हमारी जिंदगी कितनी बदली और लोग कितना खर्च करने की हालत में है. उपभोक्ता खर्च के सर्वे सबसे जरुरी आंकडे़ होते हैं. इससे यह पता चलता है कि लोग खाने, एजुकेशन और इलाज जैसे मदों में कहां-कितना खर्च कर रहे हैं. कौन कितना गरीब है और कितनी मदद की जरुरत है. किस उत्पाद या सेवा के उत्पादन को बढ़ना चाहिए ताकि मांग बढ़ने पर महंगाई न आए.
एनएसएसओ 1972 से हर 5 साल में भारतीय परिवारों की खपत-खर्च के आंकडे़ जारी करता है. 2017-18 में इस सर्वे को जारी किया गया था मगर तब सरकार ने इसके निष्कर्षों को स्वीकार नहीं किया और इसे रद कर दिया गया. यह दुनिया का सबसे बड़ा सर्वे है और सबसे लंबे समय से जारी सर्वेक्षणों में एक है. जिसमें एक लाख नगरीय और 1.5 लाख ग्रामीण परिवारों को शामिल किया जाता है. यह सर्वे करीब 2.62 लाख परिवारों के बीच किया गया है. यह सर्वेक्षण अगस्त 2022 और जुलाई 2023 के बीच हुआ है.
2023-24 का सर्वे 11 साल बाद आया है इससे पिछला आधिकारिक सर्वे 2011-12 का है. यानी एक दशक में पहली बार हमें पता चल रहा है कि देश में सामान्य परिवारों की आर्थिक तस्वीर कैसी है. इन दस सालों में लोगों की कमाई और खपत को प्रभावित करने वाले तीन बडे़ बदलाव हुए. पहला था नोटबंदी, दूसरा था जीएसटी और तीसरा कोविड की महामारी. तीनों से रोजगारों, कारोबारों और कमाई के अवसरों पर बड़ा असर पड़ा है. यह रिपोर्ट सांख्यिकी मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध है.
यह आंकडे गजब के सच हैं. इनमें इतना कुछ तलाशा और पढ़ा जा सकता है कि आपको अपने उन सारे सवालों के जवाब मिल जाएंगे जिन्हें लेकर आप बीते दस साल से परेशान थे. हम आपको भी बतायेंगे और यह भी इनसे क्या पता चलता है. दिलचस्प एक कि एक तथ्य आपको पैराडॉक्स की नई दुनिया में ले जाएगा.
* बीते ग्यारह साल में अर्थात 2011-12 के बाद प्रति व्यक्ति उपभोग खर्च में 146 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. शहरी और ग्रामीण परिवारों के खपत खर्च में करीब-करीब 13 प्रतिशतांक कम हुआ. बढ़त का आंकड़ा काफी बड़ा दिखता है मगर प्रतिशत और वास्तविक आंकड़ो में बड़ा रहस्यमय अंतर है
* 2022-23 गांवों में मासिक प्रति व्यक्ति खपत (एमपीसीई) 3773 रुपये प्रति माह थी. जबकि शहरों में 6459 रुपये. फर्क पर ध्यान दीजियेगा. इस पर हम आगे चर्चा करेंगे
* राज्यों के बीच बड़ा अंतर है. असम, बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, झारखंड, बंगाल और छत्तीसगढ़ में प्रति व्यक्ति मासिक खर्च राष्ट्रीय खर्च से कम है. आंकड़े बता रहे हैं कि जहां नगरीकरण कम है वहां जीवन स्तर अच्छा नहीं हुआ है
* आज भी अनुसूचित जातियों और जनजातियों का प्रति व्यक्ति मासिक खर्च राष्ट्रीय औसत से कम है मगर पिछड़ी जातियां दस साल में राष्ट्रीय औसत के करीब पहुंच रही हैं
* गांवों में 46 फीसदी खर्च खाने पर था और शहरों में 39 फीसदी. झटका लगा न, यानी गांवों को खाद्य महंगाई ज्यादा सताती है. जबकि हम समझते कि अनाज, दाल और तेल की महंगी कीमत शहर वालों को रुला रही है
* मगर गांव में खाने पर खर्च 50 फीसदी से नीचे आया है यानी कपड़ा, मोबाइल, ईंधन, बिजली आदि पर खर्च बढ़ा है. इनकी महंगाई भी कुछ कम नहीं रही है.
* यहां आपके लिए धंधे रोजगार या शेयर में निवेश के कुछ टिप्स हैं. आंकड़े बताते हैं कि शहरों और गांवों -दोनों पेय पदार्थ (चाय और अन्य पेय), नाश्ता आदि और प्रोसेस्ड फूड खपत की टोकरी में 9 से 10 फीसदी का सबसे बड़ा हिस्सा घेरते हैं. डेयरी उत्पाद इसके बाद दूसरे नंबर पर हैं. यानी इन धंधों में बरकत आई है और शेयर भी चमक रहे हैं
* गांव और शहर दोनों ही जगह परिवहन और इलाज पर बड़ा खर्च बढा है
* मगर ग्रामीण इलाकों में शिक्षा और प्रसाधन पर खर्च 11 साल में जस का तस है जो चौंकाने वाला तथ्य है.
इन आंकडों को और गहराई से उधड़ने पर हमें बेकारी, गरीबी, असमानता के कई सवालों के उत्तर झलकते दिखते हैं. जैसे कि ग्रामीण इलाके के शीर्ष 5 फीसदी लोग जिनका प्रति व्यक्ति मासिक खपत 10501 रुपये है. जी हां बस इतना ही, यह आंकड़ा उनका है गांवों में जो सबसे ज्यादा फले फूले हैं.
इनका खर्च गांवों के सबसे निचले 5 फीसदी यानी सबसे कम खर्च वाले व्यक्तियों से करीब 8 गुना ज्यादा है. सबसे निचले पांच फीसदी का मासिक खपत-खर्च केवल 1373 रुपये है.
शहरों की तस्वीर और भी हैरतअंगेज है यहां खर्च के पिरामिड में पांच फीसदी लोगों का मासिक प्रति व्यक्ति खर्च करीब रु. 20824 है जो शहरों के सबसे निचले पांच फीसदी लोगों के मासिक खर्च यानी 2001 रुपये का 10.4 गुना ज्यादा है.
ध्यान दीजिये के शहरों में सबसे ऊपर वालों का खर्च गांवों में सबसे ऊपर वालों का भी दोगुना है. टॉप 5 फीसदी और बॉटम पांच फीसदी वालों के बीच इतना बड़ा अंतर अकेला तथ्य नहीं है. शीर्ष पांच फीसदी और उनके बाद अगले पांच फीसदी के बीच का अंतर शहरों में 68 फीसदी अर्थात Rs 20824 बनाम Rs 12399 और गांवों में यह अंतर 58 फीसदी है यानी Rs 10501 बनाम Rs 6638 है.
इन आंकडों से हमें मिली है एक पहेली जिसकी रोशनी में जीडीपी की पैमाइश, समझ और तमाम हल्ला-गुल्ला बड़ा नकली लगने लगता है. बीते तीन उपभोक्ता खपत सर्वेक्षण 2004-05, 2011-12 और 2022-23 हमारे सामने हैं. जो बताते हैं कि भारत में 2004 के बाद से खपत खर्च में लगातार सुस्ती है. इसकी वजह बाजार का आकार बढ़ना है मगर यह बात कुछ अटपटी है कि जीडीपी का आकार 20 साल में तीन गुना बढ़ गया, अलबत्ता उपभोग खर्च का हिस्सा जीडीपी में 2004 में 60 फीसदी से घटकर 2023 में 58 फीसदी पर आ गया.
* खपत नहीं बढ रही है इसलिए कीमतें बढ रही हैं?
* कंपनियां मांग न बढ़ने की भरपाई महंगाई बढ़ाकर कर रही हैं.
* क्या सरकार का जीएसटी टैक्स संग्रह महंगाई की वजह से बढ़ रहा है मांग की वजह से नहीं.
* बीते दस साल में असंख्य योजनाओं के जरिये लोगों तक भारी पैसा गया. डायरेक्ट फंड ट्रांसफर हुए. उनके बाद भी यह हाल क्यों है?
तो फिर क्या यही वजह है 2004 में जितनी आबादी सरकारी अनाज, दवा, इलाज आदि जैसे मदद की मोहताज थी अब उसे कहीं ज्यादा लोग सरकार के मोहताज है. इसलिए सरकारों के कर्ज बढ़ते जाते हैं क्योंकि चुनाव इन्हें न्यूतनम सुविधाएं देकर जीते जाते हैं.
अब जरा यह चार्ट देखिये
सनद रहे कि वर्ल्ड बैंक ने दुनिया में प्रति व्यक्ति प्रति दिन खपत खर्च की पैमाइश की है जिसके आधार पर न्यूतनम मध्यवर्ती और ऊंची खपत के हिसाब कुछ इस तरह का है:
– न्यूनतम- प्रति व्यक्ति 2.97 डॉलर से 8.44 डॉलर प्रति दिन. अर्थात 7470 रुपये प्रति माह से 21015 रुपये प्रति माह.
– माध्यमिक – प्रति व्यक्ति 8.44 डॉलर से 23.03 डॉलर प्रति दिन. अर्थात 21015 रुपये प्रति माह से 57344 रुपये प्रति माह
– उच्च खपत – प्रति व्यक्ति 23.03 डॉलर प्रति दिन अधिक. अर्थात 57344 रुपये प्रति माह
सरकार के उपभोक्ता सर्वे के अनुसार 2022-23 गांवों में प्रति व्यक्ति मासिक खपत (एमपीसीई) 3773 रुपये प्रति माह थी. जबकि शहरों में 6459 रुपये.
गांवों में 5 फीसदी शीर्ष लोगों का खपत खर्च 10000 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति माह है और शहरों में करीब 20000 रुपये.
यानी हम पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था होने जा रहे हैं मगर हमारी अधिकांश आबादी का अधिकतम उच्चतम खर्च दुनिया में न्यूनतम खर्च के बराबर है. सरकार के इस सर्वे के बाद भारत के अधिकांश परिवार खपत खर्च में दुनिया में किन देशों के बराबर हैं यह आप खुद वर्ल्ड बैंक के डाटा बेस से देख सकते हैं.
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