आपके इनवेस्टमेंट पोर्टफोलियो में अलग-अलग तरह के एसेट क्लासेज होने चाहिए ताकि इसमें संतुलन बना रहे. इससे आप रिस्क और रिटर्न दोनों मामलों में अच्छी पोजिशन पर रहते हैं. एक औसत पोर्टफोलियो में स्टॉक्स, म्यूचुअल फंड्स, ETF और बॉन्ड शामिल होते हैं. लेकिन, बतौर इनवेस्टर अगर आप पूरी तरह से केवल स्टॉक्स और बॉन्ड्स पर ही टिके रहेंगे तो आपको कुछ नुकसान हो सकते हैं. यहां पर ही ऑप्शंस ट्रेडिंग की प्रासंगिकता साबित होती है.
फ्यूचर्स की तरह से ही ऑप्शंस ट्रेडिंग भी एक कॉन्ट्रैक्ट होता है जो कि इनवेस्टर को सिक्योरिटीज, ETF या इंडेक्स फंड को एक पहले से तय रेट पर एक तय अवधि के बाद खरीदने की इजाजत देता है, लेकिन इसे खरीदना या न खरीदना आपकी मर्जी पर निर्भर होता है.
इसमें मोटे तौर पर ऑप्शंस की खरीद और बिक्री शामिल होती है. इसमें आपको “कॉल” और “पुट” ऑप्शंस को समझना जरूरी है.
कॉल ऑप्शन में आपको भविष्य में शेयरों को खरीदने की ताकत मिलती है, जबकि पुट ऑप्शन में आपको भविष्य में शेयरों को बेचने की इजाजत मिलती है.
ऑप्शंस डेरिवेटिव सिक्योरिटीज होती हैं जिन्हें फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट के मुकाबले कम जोखिमभरा माना जाता है. ऐसा इस वजह से है क्योंकि इससे आपको कॉन्ट्रैक्ट्स से कभी भी निकलने का विकल्प मिलता है.
साथ ही इससे ये भी पता चलता है कि ऑप्शंस आपको शेयरों के उलट किसी कंपनी में किसी भी तरह की ओनरशिप नहीं देते हैं.
ऑप्शंस के दूसरे फायदों में इनकी लागत (प्रीमियम और ट्रेडिंग फीस) कम होना भी है. शेयरों में निवेश करना महंगा हो सकता है जबकि ऑप्शंस सस्ते पड़ सकते हैं.
इसे लगातार कमाई के जरिए और अपने पोर्टफोलियो को ज्यादा सुरक्षा देने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है. आप अपने ऑप्शंस कॉन्ट्रैक्ट एक्सपायरी डेट से पहले दूसरे इनवेस्टर को बेच भी सकते हैं.